दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण
दोहा :
* देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥148॥
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥148॥
भावार्थ:-मंत्री ने देखकर 'जयजीव' कहकर दण्डवत् प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले- सुमंत्र! कहो, राम कहाँ हैं ?॥148॥
चौपाई :
* भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥
भावार्थ:-राजा ने सुमंत्र को
हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को
स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे-॥1॥
* राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥2॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥2॥
भावार्थ:-हे मेरे प्रेमी सखा!
श्री राम की कुशल कहो। बताओ, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें
लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर
आया॥2॥
* सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥3॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥3॥
भावार्थ:-शोक से व्याकुल होकर
राजा फिर पूछने लगे- सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो। श्री
रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर-करके राजा हृदय में सोच
करते हैं॥3॥
* राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥4॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥4॥
भावार्थ:-(और कहते हैं-)
मैंने राजा होने की बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस (राम) के मन
में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछुड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं
गए, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा ?॥4॥
दोहा :
* सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥
भावार्थ:-हे सखा! श्री राम,
जानकी और लक्ष्मण जहाँ हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। नहीं तो मैं सत्य भाव
से कहता हूँ कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं॥149॥
चौपाई :
* पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥
भावार्थ:-राजा बार-बार मंत्री
से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ। हे सखा! तुम तुरंत
वही उपाय करो जिससे श्री राम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आँखों दिखा दो॥1॥
* सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥2॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥2॥
भावार्थ:-मंत्री धीरज धरकर
कोमल वाणी बोले- महाराज! आप पंडित और ज्ञानी हैं। हे देव! आप शूरवीर तथा
उत्तम धैर्यवान पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। आपने सदा साधुओं के समाज की सेवा
की है॥2॥
* जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥3॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥3॥
भावार्थ:-जन्म-मरण, सुख-दुःख
के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म
के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥3॥
* सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥4॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥4॥
भावार्थ:-मूर्ख लोग सुख में
हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान
समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक
का परित्याग कीजिए॥4॥
दोहा :
* प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥150॥
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥150॥
भावार्थ:-श्री रामजी का पहला
निवास (मुकाम) तमसा के तट पर हुआ, दूसरा गंगातीर पर। सीताजी सहित दोनों भाई
उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे॥150॥
चौपाई :
* केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥
भावार्थ:-केवट (निषादराज) ने
बहुत सेवा की। वह रात सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) में ही बिताई। दूसरे दिन
सबेरा होते ही बड़ का दूध मँगवाया और उससे श्री राम-लक्ष्मण ने अपने सिरों
पर जटाओं के मुकुट बनाए॥1॥
* राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाई चढ़े रघुराई॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥2॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥2॥
भावार्थ:-तब श्री रामचन्द्रजी
के सखा निषादराज ने नाव मँगवाई। पहले प्रिया सीताजी को उस पर चढ़ाकर फिर
श्री रघुनाथजी चढ़े। फिर लक्ष्मणजी ने धनुष-बाण सजाकर रखे और प्रभु श्री
रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े॥2॥
* बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू॥3॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू॥3॥
भावार्थ:-मुझे व्याकुल देखकर
श्री रामचन्द्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले- हे तात! पिताजी से मेरा प्रणाम
कहना और मेरी ओर से बार-बार उनके चरण कमल पकड़ना॥3॥
* करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी॥
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥4॥
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥4॥
भावार्थ:-फिर पाँव पकड़कर
विनती करना कि हे पिताजी! आप मेरी चिंता न कीजिए। आपकी कृपा, अनुग्रह और
पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मंगल होगा॥4॥
छन्द :
* तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥
भावार्थ:-हे पिताजी! आपके
अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊँगा। आज्ञा का भलीभाँति
पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशल पूर्वक फिर लौट आऊँगा। सब माताओं के
पैरों पड़-पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके तुलसीदास कहते
हैं- तुम वही प्रयत्न करना, जिसमें कोसलपति पिताजी कुशल रहें।
सोरठा :
* गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥151॥
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥151॥
भावार्थ:-बार-बार चरण कमलों को पकड़कर गुरु वशिष्ठजी से मेरा संदेसा कहना कि वे वही उपदेश दें, जिससे अवधपति पिताजी मेरा सोच न करें॥151॥
चौपाई :
* पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥1॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥1॥
भावार्थ:-हे तात! सब
पुरवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि
वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से हितकारी है, जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी
रहें॥1॥
* कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥2॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥2॥
भावार्थ:-भरत के आने पर उनको
मेरा संदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना, कर्म, वचन और
मन से प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना॥2॥
* ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥3॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥3॥
भावार्थ:-और हे भाई! पिता,
माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपन को अंत तक निबाहना। हे तात! राजा
(पिताजी) को उसी प्रकार से रखना जिससे वे कभी (किसी तरह भी) मेरा सोच न
करें॥3॥
* लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लारिकाई॥4॥
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लारिकाई॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी ने कुछ
कठोर वचन कहे, किन्तु श्री रामजी ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और
बार-बार अपनी सौगंध दिलाई (और कहा) हे तात! लक्ष्मण का लड़कपन वहाँ न
कहना॥4॥
दोहा :
* कहि प्रनामु कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥152॥
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥152॥
भावार्थ:-प्रणाम कर सीताजी भी
कुछ कहने लगी थीं, परन्तु स्नेहवश वे शिथिल हो गईं। उनकी वाणी रुक गई,
नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया॥152॥
चौपाई :
* तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥1॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥1॥
भावार्थ:-उसी समय श्री
रामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिए नाव चला दी। इस प्रकार
रघुवंश तिलक श्री रामचन्द्रजी चल दिए और मैं छाती पर वज्र रखकर खड़ा-खड़ा
देखता रहा॥1॥
* मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥2॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥2॥
भावार्थ:-मैं अपने क्लेश को
कैसे कहूँ, जो श्री रामजी का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर
मंत्री की वाणी रुक गई (वे चुप हो गए) और वे हानि की ग्लानि और सोच के वश
हो गए॥2॥
* सूत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥3॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥3॥
भावार्थ:-सारथी सुमंत्र के
वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी।
वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। मानो मछली को माँजा
व्याप गया हो (पहली वर्षा का जल लग गया हो)॥3॥
* करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥4॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥4॥
भावार्थ:-सब रानियाँ विलाप
करके रो रही हैं। उस महान विपत्ति का कैसे वर्णन किया जाए? उस समय के विलाप
को सुनकर दुःख को भी दुःख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया!॥4॥
दोहा :
* भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥153॥
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥153॥
भावार्थ:-राजा के रावले
(रनिवास) में (रोने का) शोर सुनकर अयोध्या भर में बड़ा भारी कुहराम मच गया!
(ऐसा जान पड़ता था) मानो पक्षियों के विशाल वन में रात के समय कठोर वज्र
गिरा हो॥153॥
चौपाई :
* प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥1॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥1॥
भावार्थ:-राजा के प्राण कंठ
में आ गए। मानो मणि के बिना साँप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो। इन्द्रियाँ
सब बहुत ही विकल हो गईं, मानो बिना जल के तालाब में कमलों का वन मुरझा गया
हो॥1॥
* कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥2॥
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥2॥
भावार्थ:-कौसल्याजी ने राजा
को बहुत दुःखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त
हो चला! तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के
अनुकूल वचन बोलीं-॥2॥
* नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥3॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! आप मन में
समझ कर विचार कीजिए कि श्री रामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है। अयोध्या
जहाज है और आप उसके कर्णधार (खेने वाले) हैं। सब प्रियजन (कुटुम्बी और
प्रजा) ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है॥3॥
* धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥4॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥4॥
भावार्थ:-आप धीरज धरिएगा, तो
सब पार पहुँच जाएँगे। नहीं तो सारा परिवार डूब जाएगा। हे प्रिय स्वामी! यदि
मेरी विनती हृदय में धारण कीजिएगा तो श्री राम, लक्ष्मण, सीता फिर आ
मिलेंगे॥4॥
दोहा :
* प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥154॥
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥154॥
भावार्थ:-प्रिय पत्नी कौसल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आँखें खोलकर देखा! मानो तड़पती हुई दीन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो॥154॥
चौपाई :
* धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥
भावार्थ:-धीरज धरकर राजा उठ
बैठे और बोले- सुमंत्र! कहो, कृपालु श्री राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं?
स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है?॥1॥
* बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥2॥
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥2॥
भावार्थ:-राजा व्याकुल होकर
बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती ही
नहीं। राजा को अंधे तपस्वी (श्रवणकुमार के पिता) के शाप की याद आ गई।
उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई॥2॥
* भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥3॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥3॥
भावार्थ:-उस इतिहास का वर्णन
करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि श्री राम के बिना जीने की आशा
को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा, जिसने मेरा प्रेम का
प्रण नहीं निबाहा?॥3॥
* हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥
भावार्थ:-हा रघुकुल को आनंद
देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन
बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित
करने वाले मेघ!॥4॥
दोहा :
* राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥
भावार्थ:-राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्री राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए॥155॥
चौपाई :
* जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥1॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥1॥
भावार्थ:-जीने और मरने का फल
तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांडों में छा गया।
जीते जी तो श्री रामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखा और श्री राम
के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया॥1॥
* सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमितल बारहिं बारा॥2॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमितल बारहिं बारा॥2॥
भावार्थ:-सब रानियाँ शोक के
मारे व्याकुल होकर रो रही हैं। वे राजा के रूप, शील, बल और तेज का बखान
कर-करके अनेकों प्रकार से विलाप कर रही हैं और बार-बार धरती पर गिर-गिर
पड़ती हैं॥2॥
* बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥3॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥3॥
भावार्थ:-दास-दासीगण व्याकुल
होकर विलाप कर रहे हैं और नगर निवासी घर-घर रो रहे हैं। कहते हैं कि आज
धर्म की सीमा, गुण और रूप के भंडार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गए?॥3॥
* गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥4॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥4॥
भावार्थ:-सब कैकेयी को
गालियाँ देते हैं, जिसने संसार भर को बिना नेत्रों का (अंधा) कर दिया! इस
प्रकार विलाप करते रात बीत गई। प्रातःकाल सब बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि आए॥4॥
मुनि वशिष्ठ का भरतजी को बुलाने के लिए दूत भेजना
दोहा :
* तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥156॥
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥156॥
भावार्थ:-तब वशिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया॥156॥
चौपाई :
* तेल नावँ भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥1॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥1॥
भावार्थ:-वशिष्ठजी ने नाव में
तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे
ऐसा कहा- तुम लोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा की मृत्यु का समाचार
कहीं किसी से न कहना॥1॥
* एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥2॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥2॥
भावार्थ:-जाकर भरत से इतना ही
कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है। मुनि की आज्ञा सुनकर
धावन (दूत) दौड़े। वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले॥2॥
* अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥3॥
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥3॥
भावार्थ:-जब से अयोध्या में
अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर
स्वप्न देखते थे और जागने पर (उन स्वप्नों के कारण) करोड़ों (अनेकों) तरह
की बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया करते थे॥3॥
* बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥4॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥4॥
भावार्थ:-(अनिष्टशान्ति के
लिए) वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से
रुद्राभिषेक करते थे। महादेवजी को हृदय में मनाकर उनसे माता-पिता,
कुटुम्बी और भाइयों का कुशल-क्षेम माँगते थे॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई॥157॥
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई॥157॥
भावार्थ:-भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुँचे। गुरुजी की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पड़े।157॥
चौपाई :
* चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥1॥
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥1॥
भावार्थ:-हवा के समान वेग
वाले घोड़ों को हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लाँघते हुए
चले। उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। मन में ऐसा सोचते थे कि
उड़कर पहुँच जाऊँ॥1॥
* एक निमेष बरष सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥2॥
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥2॥
भावार्थ:-एक-एक निमेष वर्ष के
समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुँचे। नगर में प्रवेश
करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव कर
रहे हैं॥2॥
* खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥3॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥3॥
भावार्थ:-गदहे और सियार
विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन-सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है।
तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा
है॥3॥
* खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥4॥
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के वियोग
रूपी बुरे रोग से सताए हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी (ऐसे दुःखी हो रहे हैं
कि) देखे नहीं जाते। नगर के स्त्री-पुरुष अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। मानो
सब अपनी सारी सम्पत्ति हार बैठे हों॥4॥
* पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥
भावार्थ:-नगर के लोग मिलते
हैं, पर कुछ कहते नहीं, गौं से (चुपके से) जोहार (वंदना) करके चले जाते
हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और
विषाद छा रहा है॥158॥
श्री भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक
* हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥1॥
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥1॥
भावार्थ:-बाजार और रास्ते
देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है! पुत्र को
आते सुनकर सूर्यकुल रूपी कमल के लिए चाँदनी रूपी कैकेयी (बड़ी) हर्षित
हुई॥1॥
* सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई॥
भरत दुखित परिवारु निहारा॥ मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥2॥
भरत दुखित परिवारु निहारा॥ मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥2॥
भावार्थ:-वह आरती सजाकर आनंद
में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर ही मिलकर भरत-शत्रुघ्न को महल में ले आई।
भरत ने सारे परिवार को दुःखी देखा। मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो॥2॥
* कैकेई हरषित एहि भाँती। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतिह ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥3॥
सुतिह ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥3॥
भावार्थ:-एक कैकेयी ही इस तरह
हर्षित दिखती है मानो भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंद में भर रही हो। पुत्र
को सोच वश और मन मारे (बहुत उदास) देखकर वह पूछने लगी- हमारे नैहर में कुशल
तो है?॥3॥
* सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥4॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥4॥
भावार्थ:-भरतजी ने सब कुशल कह
सुनाई। फिर अपने कुल की कुशल-क्षेम पूछी। (भरतजी ने कहा-) कहो, पिताजी
कहाँ हैं? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण
कहाँ हैं?॥4॥
दोहा :
* सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥
भावार्थ:-पुत्र के स्नेहमय
वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और
मन में शूल के समान चुभने वाले वचन बोली-॥159॥
चौपाई :
* तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥1॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥1॥
भावार्थ:-हे तात! मैंने सारी
बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा सा काम
बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गए॥1॥
* सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥2॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥2॥
भावार्थ:-भरत यह सुनते ही
विषाद के मारे विवश (बेहाल) हो गए। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया
हो। वे 'तात! तात! हा तात!' पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीन पर गिर
पड़े॥2॥
* चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥3॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥3॥
भावार्थ:-(और विलाप करने लगे
कि) हे तात! मैं आपको (स्वर्ग के लिए) चलते समय देख भी न सका। (हाय!) आप
मुझे श्री रामजी को सौंप भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे सम्हलकर उठे और
बोले- माता! पिता के मरने का कारण तो बताओ॥3॥
* सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥4॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥4॥
भावार्थ:-पुत्र का वचन सुनकर
कैकेयी कहने लगी। मानो मर्म स्थान को पाछकर (चाकू से चीरकर) उसमें जहर भर
रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से (आखिर तक बड़े)
प्रसन्न मन से सुना दी॥4॥
दोहा :
* भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का
वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इस सारे अनर्थ का
कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गए (अर्थात उनकी बोली बंद
हो गई और वे सन्न रह गए)॥160॥
* बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥
तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥1॥
तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥1॥
भावार्थ:-पुत्र को व्याकुल
देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली-) हे तात!
राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त
भोग किया॥1॥
* जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥2॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥2॥
भावार्थ:-जीवनकाल में ही
उन्होंने जन्म लेने के सम्पूर्ण फल पा लिए और अंत में वे इन्द्रलोक को चले
गए। ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाज सहित नगर का राज्य करो॥2॥
* सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥3॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥3॥
भावार्थ:-राजकुमार भरतजी यह
सुनकर बहुत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उन्होंने धीरज
धरकर बड़ी लम्बी साँस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर
दिया॥3॥
* जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥4॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥4॥
भावार्थ:-हाय! यदि तेरी ऐसी
ही अत्यन्त बुरी रुचि (दुष्ट इच्छा) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों
नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिए
पानी को उलीच डाला! (अर्थात मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा अहित कर
डाला)॥4॥
दोहा :
* हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥161॥
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥161॥
भावार्थ:-मुझे सूर्यवंश (सा
वंश), दशरथजी (सरीखे) पिता और राम-लक्ष्मण से भाई मिले। पर हे जननी! मुझे
जन्म देने वाली माता तू हुई! (क्या किया जाए!) विधाता से कुछ भी वश नहीं
चलता॥161॥
चौपाई :
* जब मैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ हृदउ न गयऊ॥
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा॥1॥
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा॥1॥
भावार्थ:-अरी कुमति! जब तूने
हृदय में यह बुरा विचार (निश्चय) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े
(क्यों) न हो गए? वरदान माँगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई? तेरी
जीभ गल नहीं गई? तेरे मुँह में कीड़े नहीं पड़ गए?॥1॥
* भूपँ प्रतीति तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥2॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥2॥
भावार्थ:-राजा ने तेरा
विश्वास कैसे कर लिया? (जान पड़ता है,) विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि
हर ली थी। स्त्रियों के हृदय की गति (चाल) विधाता भी नहीं जान सके। वह
सम्पूर्ण कपट, पाप और अवगुणों की खान है॥2॥
* सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
भावार्थ:-फिर राजा तो सीधे,
सुशील और धर्मपरायण थे। वे भला, स्त्री स्वभाव को कैसे जानते? अरे, जगत के
जीव-जन्तुओं में ऐसा कौन है, जिसे श्री रघुनाथजी प्राणों के समान प्यारे
नहीं हैं॥3॥
* भे अति अहित रामु तेउ तोहीं। को तू अहसि सत्य कहु मोही॥
जो हसि सो हसि मुँह मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहि जाई॥4॥
जो हसि सो हसि मुँह मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहि जाई॥4॥
भावार्थ:-वे श्री रामजी भी
तुझे अहित हो गए (वैरी लगे)! तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है,
अब मुँह में स्याही पोतकर (मुँह काला करके) उठकर मेरी आँखों की ओट में जा
बैठ॥4॥
दोहा :
* राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥162॥
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥162॥
भावार्थ:-विधाता ने मुझे श्री
रामजी से विरोध करने वाले (तेरे) हृदय से उत्पन्न किया (अथवा विधाता ने
मुझे हृदय से राम का विरोधी जाहिर कर दिया।) मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है?
मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूँ॥162॥
चौपाई :
* सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥1॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥1॥
भावार्थ:-माता की कुटिलता
सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी
समय भाँति-भाँति के कपड़ों और गहनों से सजकर कुबरी (मंथरा) वहाँ आई॥1॥
* लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई॥
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुँह भर महि करत पुकारा॥2॥
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुँह भर महि करत पुकारा॥2॥
भावार्थ:-उसे (सजी) देखकर
लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गए। मानो जलती हुई आग को घी
की आहुति मिल गई हो। उन्होंने जोर से तककर कूबड़ पर एक लात जमा दी। वह
चिल्लाती हुई मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ी॥2॥
* कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू॥
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥3॥
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥3॥
भावार्थ:-उसका कूबड़ टूट गया,
कपाल फूट गया, दाँत टूट गए और मुँह से खून बहने लगा। (वह कराहती हुई बोली-)
हाय दैव! मैंने क्या बिगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया॥3॥
* सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥
भरत दयानिधि दीन्हि छुड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥4॥
भरत दयानिधि दीन्हि छुड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥4॥
भावार्थ:-उसकी यह बात सुनकर
और उसे नख से शिखा तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़-पकड़कर उसे घसीटने
लगे। तब दयानिधि भरतजी ने उसको छुड़ा दिया और दोनों भाई (तुरंत) कौसल्याजी
के पास गए॥4॥
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